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Order 22 Rule 4 CPC Procedure in the case of death of one of several defendants of sole defendant.

Order 22 Rule 4 CPC Procedure in the case of death of one of several defendants of sole defendant.  आदेश 22 नियम 4 सीपीसी- कई प्रतिवादियो मे...

Ex - Parte Temporary Injunction    Order 39 Rule 3 C.P.C.
एकपक्षीय अस्थाई व्यादेश - आदेश 39 नियम 3 सी.पी.सी.


   विधि का यह सुस्थापित सिद्धांत हैं की कोई भी आदेश न्यायालय द्वारा विरोधी पक्षकार को सुचना देने के पश्चात ही पारित किया जा सकता हैं यह न्यायालय का परम कर्तव्य हैं | अस्थाई व्यादेश का आदेश भी विरोधी पक्षकार को सामान्यतः सूचना देने के पश्चात तथा सुनवाई का अवसर दिए जाने के पश्चात ही दिया जाना न्याय संगत हैं परन्तु नयायालय को यह समाधान करा दिया जाता हैं की विरोधी पक्षकार को सुचना दिए जाने वाले समय में विलम्ब होगा और उक्त विलम्ब से व्यादेश विफल हो जायेगा तो ऐसी परिस्थिति में न्यायालय विरोधी पक्षकार को सुचना दिए बिना अस्थाई व्यादेश का आदेश ऐसे कारणों को अभिलिखित करते हुए अस्थाई व्यादेश प्रदान कर सकता हैं | सामान्य भाषा में इसे एकपक्षीय व्यादेश का आदेश भी कहा जाता हैं | सहिंता में विरोधी पक्षकार को सुचना दिए बिना अस्थाई व्यादेश के प्रावधान आदेश 39 नियम 3 में किये गये हैं तथा यदि आएश 3 के अंतर्गत कोई आदेश पारित किया जाता हैं तो उक्त प्राथना पत्र का निस्तारण नियम 3 (क) के प्रावधानों के अनुसरण में न्यायलय द्वारा किया जाना होता हैं | सहिंता के उक्त नियम निम्न प्रकार हैं -

आदेश 39 नियम 3 - व्यादेश देने से पहले न्यायालय निदेश देगा कि विरोधी पक्षकार को सुचना दे दी जाए-

वहा के सिवाय जहां यह प्रतीत होता है का व्यादेश देने का उद्देश्य विलम्ब द्वारा निष्फल हो जायेगा न्यायालय सब मामलो में व्यादेश देने के पूर्व  यह निदेश देगा कि व्यादेश के आवेदन कि सूचना विरोधी पक्षकार को दे दी जाए:
  परन्तु जहा यह प्रस्थापना की जाती है कि विरोधी पक्षकार को आवेदन की सुचना दिये बिना व्यादेश दे दिया जाए वहा न्यायालय अपनी ऐसी राय के लिए  विलम्ब द्वारा व्यादेश का उद्देश्य विफल हो जायेगा, कारण अभिलिखित करेगा और आवेदक से यह से यह अपेक्षा कर सकेगा कि वह--

( क)  व्यादेश देने वाला आदेश किये जाने के तुरंत पश्चात व्यादेश के लिए आवेदन के साथ निम्न प्रति--

१. आवेदन के समर्थन में फाइल किये शपथ पत्र की प्रति;
२. वाद पत्र की प्रति; और
३. उन दस्तावेजो की प्रति जिन पर आवेदक निर्भर करता है,
विरोधी पक्षकार को दे या उसे रजिस्टर्डकृत डाक द्वारा भेजे, और
(ख) उस तारीख को जिसको ऐसा व्यादेश दिया गया है या उस दिन से ठीक अगले दिन को यह कथन करने वाला शपथ पत्र पेश करे कि उपरोक्त प्रतियां इस प्रकार दे दी गयी है या भेज दी गयी है।


आदेश 39 नियम 3 ( क) व्यादेश के लिए आवेदन का न्यायालय द्वारा तीस दिवस के भीतर निपटाया जाना -

जहाँ कोई व्यादेश विरोधी पक्षकार को सुचना दिए बिना दिया गया है वहां न्यायालय आवेदन को ऐसी तारीख से जिसको व्यादेश दिया गया था, तीस दिवस के भीतर निपटाने का प्रयास करेगा और जहा वह ऐसा करने में असमर्थ है वहा ऐसी असमर्थता के लिए कारण अभिलिखित करेगा।

आदेश 39 के अन्य उपबंधों के अध्यन के लिए यहाँ CLICK  कर पढ़े |

उपरोक्त नियम के अध्यन से स्पष्ट हैं की नियम 3 के अंतर्गत न्यायालय विरोधी पक्षकार को सुचना दिए बिना अस्थाई व्यादेश का आदेश प्रार्थी को प्रदत्त कर सकेगा तथा इस नियम के अधीन पारित आदेश होने पर न्यायालय नियम 3(क) के अनुसरण में ऐसे प्रदत्त व्यादेश के आदेश की एक प्रति मय वाद पत्र व प्राथना पत्र की प्रति, शपत पत्र एवं अन्य समर्थित दस्तावेजो की प्रतिलिपियाँ विपक्षी पक्षकार को रजिस्टर्ड डाक से विरोधी पक्षकार को भेजी जाएगी तथा जिस तारीख को व्यादेश का आदेश दिया गया हैं उसके अगले दिन यह कथन करने वाला शपत पत्र की नियम 3 की पालना में उक्त तमाम उपरोक्त प्रतियाँ विरोधी पक्षकार को देदी या भेज दी गयी हैं | इस आशय का निदेश एकपक्षीय व्यादेश प्राप्त करने वाले पक्षकार को देगा |
इस प्रकार सहिंता का यह एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण उपबंध हैं |

व्यादेश देने के पूर्व न्यायालय इस सम्बन्ध में जो सहिंता में आवश्यक शर्ते दी गयी हैं उसके अध्ययन के लिए यहा CLICK पढ़े |

इस सम्बन्ध में निम्न न्यायिक महत्वपूर्ण निर्णय इस उपबंध को समझने के लिए दिए जा रहे हैं -

(1) जब न्यायालय द्वारा सुनवाई का नोटिस दिए बिना व्यादेश जारी करता हैं तो उसे कारणों का उल्लेख करना आवश्यक होगा |
     AIR 1989 Mad. 139
(2) एकपक्षीय अस्थाई व्यादेश न्यायालय बिना  विवेकाधीन के पारित करता हैं और वादी के अनाधिकृत निर्माण को जारी रखता हैं तो ऐसा आदेश जारी नही रखा जा सकता हैं |
     AIR 1996 Bom. 304
(3) एकपक्षीय अस्थाई व्यादेश का आदेश पारित करते समय न्यायालय को उसके कारणों को अभिलिखित किये जाने के प्रावधान आज्ञापक हैं और उनका उलंगन का अभिवाक न्यायालय उठा सकेगा |


    AIR 2003 Cal. 96
(4) एकपक्षीय अस्थाई व्यादेश का आदेश नियम 3 की पूर्ण पालना होने पर दुर्लभ मामलो में ही जारी किया जा सकता हैं जहा विलम्ब के कारण न्याय विफल होता हो, परन्तु व्यादेश का आदेश में न्यायालय को कारणों का उल्लेख करना आवश्यक होगा |
     AIR 1990 All. 134
(5) एकपक्षीय अस्थाई व्यादेश का आदेश विशिष्ट मामलो में ही दिया जा सकता हैं तथा न्यायालय को विशिष्ट कारणों का उल्लेख आदेश में करना होगा,नियम की व्याख्या की गयी |
     1994(2) DNJ (S.C.) 213
(5) एकपक्षीय अस्थाई व्यादेश का जारी होना तथा विरोधी पक्षकार को जारी होना - निर्णित व्यादेश का आदेश  तथा नोटिस जारी होने के आदेश अपीलीय नही हैं, यह अंतिम आदेश नियम 1, 2 में पारित नही हुआ हैं |  
     AIR 1991 NOC 70(Ori.)
(6) एकपक्षीय अस्थाई व्यादेश का जारी होने पर प्राथना पत्र को 30 दिन के भीतर निर्णित करने के आज्ञापक प्रावधान हैं - 30 दिन के पश्चात भी आदेश का बना रहना अवैध हैं आज्ञापक प्रावधानों का उलंगन हैं |
     AIR 1995 (Mad.) 217
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Temporary injunction and interlocutory Orders
ORDER 39 CPC
अस्थाई व्यादेश और अंतर्वर्ती आदेश
  आदेश 39 सी. पी. सी.


       सिविल प्रक्रिया सहिंता में आदेश 39 बहूत ही महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उक्त  आदेश अस्थायी व्यादेश एवं वाद कालीन आदेश बाबत प्रक्रिया सम्बंधित हैं | जब पक्षकार न्यायलय में वाद प्रस्तुत करता हैं तब विरोधी पक्षकार के किसी अपकृत्य को तत्काल रोकने की आवयश्कता होती हैं | वाद कि लम्बी प्रक्रिया होने से तत्काल अनुतोष पक्षकार को वाद के साथ इस आदेश के अंतर्गत प्राथना पत्र प्रस्तुत करने पर न्यायलय तत्काल विरोधी पक्ष के अपकृत्य को रोकने का आदेश प्रदान कर सकते हैं। न्यायलय की सामान्य प्रक्रिया में यथास्थिति(status quo)  बनाये रखने का आदेश प्रदान किया जाता हैं ।  यदि कोई पक्षकारवाद ग्रस्त ऐसी सम्पति को क्षति पहुचाने का  कार्य करता हैं या ऐसे कार्य करने की धमकी देता हैं तो निश्चित ही यह कृत्य दुसरे पक्षकार के लिए अपूर्णीय क्षति का कृत्य करता हैं एसी अवस्था में न्यायलय का प्रथम कर्तव्य हैं की वाद के लंबित रहने के दौरान या उसके अंतिम निर्णय तक वादग्रस्त सम्पति की  सुरक्षा करने के लिए वाद के रोज की  स्थति को बनाये रखने का आदेश व्यादेश(njunction )विरोधी पक्ष के विरुद्ध जारी करे।

         व्यादेश 4 प्रकार के होते हैं -


1 अस्थायी व्यादेश ( temporary injunction)
2 स्थायी व्यादेश  (prohibitory injun)
3 निषेधात्मक व्यादेश(Prohibitory injunction)
4.आज्ञात्मक व्यादेश(Mandatory injuction)

सिविल प्रक्रिया संहिता में अस्थाई निषेधाज्ञा का ही उपबंध है।अन्य तीनो व्यादेश के बारे में विशिष्ठ अनुतोष अधिनियम 1963(Specific Relief Act,1963)में प्रावधान किया गया है।


आदेश 39 सी पी सी-

नियम 1.वे दशाएं जिनमे अस्थाई व्यादेश दिया जा सकेगा-
जहा किसी वाद में शपथ पत्र द्वारा या अन्यथा यह साबित कर दिया जाता है कि--
(क) वाद में किसी विवादग्रस्त सम्पति के बारे में यह खतरा है कि वाद का कोई भी पक्षकार उसका नष्ट करेगा ,या नुकशान पहुचायेगा या अन्य अंतरित करेगा,या डिक्री के निष्पादन में उसका सदोष विक्रय कर दिया जावेगा अथवा
(ख) प्रतिवादी अपने लेनदारों को (कपट वंचित) करने की दृष्टि से अपनी सम्पति को हटाने या व्ययन करने की धमकी देता है या ऐसा करने का आशय रखता है,
(ग) प्रतिवादी वादी को वाद में विवादग्रस्त किसी सम्पति से बेकब्जा करने की या वादी को उस सम्पति के सम्बध में अन्यथा क्षति पहुचाने की धमकी देता है,--वहां न्यायालय ऐसे कार्य को अवरूढ करने के लिये आदेश द्वारा अस्थाई व्यादेश दे सकेगा,या सम्पति के दुर्व्यन किये जाने ,नुकशान किये जाने,अन्य संक्रांत किये जाने, ,हस्तांतरण किये जाने ,हटाये जाने या व्ययनित किये जाने जाने से अथवा वादी को वाद में विवादग्रस्त सम्पति से बेकब्जा करने या वादी को उस सम्पति के सम्बन्ध में अन्यथा क्षति पहुचाने से रोकने और निवारित करने के प्रयोजन से ऐसे अन्य आदेश जो न्यायालय ठीक समझे ,तब तक के लिये कर सकेगा जब तक उस वाद का निपटारा न हो जाय या जब तक अतिरिक्त आदेश न दे दिए जाये ।


नियम 2.भंग की पुनरावर्ती या जारी रखना को रोकने के लिए व्यादेश-
नियम 2 (1). संविदा भंग करने से या किसी भी प्रकार की अन्य क्षति करने से प्रतिवादी को अवरुद्ध करने के किसी भी वाद में, चाहे वाद में प्रतिकर का दावा  किया गया हो या न किया गया हो, वादी प्रतिवादी को परिवादित संविदा भंग या क्षति करने से या कोई भी संविदा भंग करने से या तीव्र क्षति करने से, जो उसी संविदा से उद्भूत होती हो या उसी सम्पति या अधिकार से सम्बंधित हो, अवरुद्ध करने के अस्थाई व्यादेश के लिए न्यायालय से आवेदन, वाद प्रारंभ होने के पश्चात किसी भी समय और निर्णय के पहले या पश्चात कर सकेगा |

नियम 2(2). न्यायालय ऐसा व्यादेश, ऐसे व्यादेश की अवधि के बारे में ,लेखा करने के बारे में, प्रतिभूति देने के बारे में, ऐसे निबन्धनों पर,या अन्यथा, न्यायालय जो ठीक समझे, आदेश द्वारा दे सकेगा।

यह भी पढ़े -  वाद की रचना (FRAME OF SUIT )
                    व्यादेश व न्यायालय की अन्तर्निहित शक्तियां

2(क) व्यादेश की अवज्ञा या भंग का परिणाम-
(1) नियम 1 या नियम 2 के अधीन दिए गए किसी व्यादेश या किये गए अन्य आदेश की अवज्ञा की दशा में या जिन निबन्धनों पर आदेश दिया गया था या आदेश किया गया था उनमे से के किसी निबंधन के भंग की दशा में व्यादेश देने वाला या आदेश करने वाला न्यायालय या ऐसा कोई न्यायालय, जिसे वाद या कार्यवाही अंतरित की गयी है,यह आदेश दे सकेगा कि ऐसी अवज्ञा या भंग करने के दोषी व्यक्ति की सम्पति कुर्क की जाए और यह भी आदेश दे सकेगा कि वह व्यक्ति तीन माह से अनधिक अवधि के लिए सिविल कारागार में तब तक निरुद्ध किया जाए जब तक की इस बीच में न्यायालय उसकी निर्मुक्ति के लिए निदेश न दे दे।
(2) इस अधिनियम के अधीन की गई कोई कुर्की एक वर्ष से अधिक समय के लिये प्रवर्त नहीं रहेगी,जिसके ख़त्म होने पर यदि अवज्ञा या भंग जारी रहे तो कुर्क की गयी सम्पति का विक्रय किया जा सकेगा और न्यायालय आगमो में से ऐसा प्रतिकर जो वह ठीक समझे उस पक्षकार को दिला सकेगा जिसकी क्षति हुई हो,और शेष रहे तो उसे हक़दार पक्षकार को देगा।
3.  व्यादेश देने से पहले न्यायालय निदेश देगा कि विरोधी पक्षकार को सुचना दे दी जाए-
वहा के सिवाय जहां यह प्रतीत होता है का व्यादेश देने का उद्देश्य विलम्ब द्वारा निष्फल हो जायेगा न्यायालय सब मामलो में व्यादेश देने के पूर्व  यह निदेश देगा कि व्यादेश के आवेदन कि सूचना विरोधी पक्षकार को दे दी जाए:
    परन्तु जहा यह प्रस्थापना की जाती है कि विरोधी पक्षकार को आवेदन की सुचना दिये बिना व्यादेश दे दिया जाए वहा न्यायालय अपनी ऐसी राय के लिए  विलम्ब द्वारा व्यादेश का उद्देश्य विफल हो जायेगा, कारण अभिलिखित करेगा और आवेदक से यह से यह अपेक्षा कर सकेगा कि वह--
( क)  व्यादेश देने वाला आदेश किये जाने के तुरंत पश्चात व्यादेश के लिए आवेदन के साथ निम्न प्रति--
१. आवेदन के समर्थन में फाइल किये शपथ पत्र की प्रति;
२. वाद पत्र की प्रति; और
३. उन दस्तावेजो की प्रति जिन पर आवेदक निर्भर करता है,
विरोधी पक्षकार को दे या उसे रजिस्टर्डकृत डाक द्वारा भेजे, और
(ख) उस तारीख को जिसको ऐसा व्यादेश दिया गया है या उस दिन से ठीक अगले दिन को यह कथन करने वाला शपथ पत्र पेश करे कि उपरोक्त प्रतियां इस प्रकार दे दी गयी है या भेज दी गयी है।

3 ( क) व्यादेश के लिए आवेदन का न्यायालय द्वारा तीस दिवस के भीतर निपटाया जाना -
जहाँ कोई व्यादेश विरोधी पक्षकार को सुचना दिए बिना दिया गया है वहां न्यायालय आवेदन को ऐसी तारीख से जिसको व्यादेश दिया गया था, तीस दिवस के भीतर निपटाने का प्रयास करेगा और जहा वह ऐसा करने में असमर्थ है वहा ऐसी असमर्थता के लिए कारण अभिलिखित करेगा।
4. व्यादेश के आदेश को प्रभावमुक्त,उसमे फेर फार या अपास्त किया जा सकेगा-
व्यादेश के किसी भी आदेश को उस आदेश से असंतुष्ट किसी पक्षकार द्वारा न्यायालय से किये गये आवेदन पर उस न्यायालय द्वारा प्रभाव मुक्त, उसमे फेर फार या उसे अपास्त किया जा सकेगा;
      परन्तु यदि अस्थाई व्यादेश के लिए किसी आवेदन में या ऐसे आवेदन का समर्थन करने वाले किसी शपथ पत्र में किसी  पक्षकार ने किसी तात्विक विशिष्ट के सम्बध में जानते हुए मिथ्या या भ्रामक कथन किया है और विरोधी पक्षकार को सुचना दिए बिना व्यादेश दिया गया था तो न्यायालय व्यादेश को उस दशा में अपास्त कर देगा जिसमे वह अभिलिखित किये जाने वाले कारणों से यह समझता है कि न्याय के हित में ऐसा करना आवश्यक नही है:
        परन्तु यह और कि जहां किसी पक्षकार को सुनवाई का अवसर दिये जाने के पश्चात व्यादेश के लिये आदेश पारित किया गया है वहा ऐसे आदेश को उस पक्षकार के आवेदन पर तब तक डिस्चार्ज फेर फार या अपास्त किया जाना आवश्यक न हो गया हो या जब तक न्यायालय का यह समाधान नही हो जाता है कि आदेश से उस पक्षकार को कठिनाई हुई हो।
5. निगम को निर्दिष्ट व्यादेश उसके अधिकारियो पर आबद्ध होगा-
किसी निगम को निर्दिष्ट व्यादेश न केवल निगम पर ही बाध्यकर होगा बल्कि निगम के उन सभी सदस्य और अधिकारियो पर भी बाध्यकारी होगा जिनके व्यक्तिगत कार्य को अवरुद्ध करने के लिए वह चाहा गया है।
6. अंतरिम विक्रय को आदेश देने की शक्ति-
न्यायालय वाद के किसी भी पक्षकार के आवेदन पर ऐसे आदेश में नामित किसी भी व्यक्ति द्वारा और ऐसी रीती से और ऐसे निबन्धनों पर जो न्यायालय ठीक समजे, किसी भी ऐसी चल संपत्ति के विक्रय का आदेश दे सकेगा जो ऐसे वाद की विषय वस्तु हैं या ऐसे वाद में निर्णय के पूर्व कुर्क की गयी हैं और जो शीघ्रतया और प्राकृत्या नष्ट होने योग्य हैं या जिसके बाबत किसी अन्य न्यायसंगत और पर्याप्त हेतुक से ये वांछनीय हो की उसका तुरंत विक्रय कर दिया जाये ।
7. वाद की विषय वस्तु का निरोध, परिक्षण, निरक्षण आदि -
(१) न्यायालय वाद के किसी भी पक्षकार के आवेदन पर और ऐसे निबन्धनों पर जो वो ठीक समझे-
 (क) किसी भी ऐसी सम्पति के , जो ऐसे वाद की विषय वस्तु हैं या जिसके बारे में उस वाद में कोई प्रश्न उतपन हो सकता हो, निरोध, परिरक्षण या निरक्षण के लिए आवेदन कर सकेगा ।
(ख) ऐसे वाद के किसी भी अन्य पक्षकार के कब्जे में किसी भी भूमि या भवन में पूर्वोक्त सभी या किन्ही परियोजन के लिए प्रवेश करने को किसी भी व्यक्ति को प्राधिकृत कर सकेगा; तथा
(ग) पूर्वोक्त सभी या किन्ही परियोजनों के लिए किन्ही भी ऐसे नमूनों का लिया जाना या किसी भी ऐसे प्रेक्षण या प्रयोग का किया जाना, जो पूरी जानकारी या साक्ष्य
अभिप्राप्त करने प्रयोजन के लिए आवश्यक या उचित प्रतीत हो , प्राधिकृत क्र सकेगा ।

(२) आदेशिका के निष्पादन संबंधी उपबन्ध प्रवेश करने के लिए इस नियम के अधीन प्राधिकृत व्यक्तियों को यथा आवश्यक परिवर्तन सहित लागु होंगे ।
(8) ऐसे आदेशो के लिए आवेदन सुचना के पश्चात किया जायेगा -
(१) वादी द्वारा नियम 6 और 7 के अधीन आदेश के लिए आवेदन वाद के प्रस्तुत किये जाने के पश्चात किसी भी समय किया जा सकेगा ।
(२) प्रतिवादी द्वारा ऐसे ही आदेश के लिए आवेदन उपसंजात होन के पश्चात किसी भी समय किया जा सकेगा।
(३) इस प्रयोजन के लिए केकिये गए आवेदन पर नियम 6 या नियम   7 के अधीन आदेश करने के पूर्व न्यायालय उसकी सुचना विरोधी पक्षकार को देने का निदेश वहां के सिवाय देगा जहाँ ये प्रतीत हो की ऐसा आदेश करने का उद्देश्य विलम के कारण निष्फल हो जायेगा ।
(9) जो भूमि वाद की विषय वस्तु हैं उस पर पक्षकार का तुरंत कब्ज़ा कब कराया जा सकेगा -
जहा सरकार को राजस्व देने वाली भूमि या विक्रय के दायित्व के अधीन भू-धृति वाद की विषय वस्तु हैं वहाँ, यदि पक्षकार जो ऐसी भूमि या भू धरती पर कब्ज़ा रखता हैं , यथा स्थति सरकारी राजस्व या भू-धृति के स्वत्वधारी को शोध्य भाटक देने में अपेक्षा करता हैं और परिणामतः  ऐसी भूमि या भू-धृति के विक्रय के लिए आदेश दिया गया हैं तो उस वाद के किसी भी अन्य पक्षकार का जो हितबद्ध होने का दावा करता  हैं  तो तुरंत कब्ज़ा विक्रय के पहले से शोध्य राजस्व भाटक का संदाय कर दिए जाने पर न्यायालय के विवेकानुसार प्रतिभूति सहित या रहित कराया जा सकेगा ।
   और एस प्रकार संदत्त रकम को उस पर ऐसी दर से ब्याज सहित जो न्यायालय ठीक समझे,  न्यायालय अपनी डिक्री में व्यतिकर्मी के विरुद्ध अधिनिर्णित कर सकेगा या इस प्रकार संदत्त रकम को उस पर ऐसी दर से ब्याज सहित जो न्यायालय आदेश करे, लेखायो के किसी ऐसे समायोजन में, जो वाद में पारित डिक्री द्वारा निर्दिष्ट किया गया हो, प्रभावित कर सकेगा |


(10) न्यायालय में धन आदि का जमा किया जाना -
जहा वाद की विषय वस्तु धन या ऐसी कोई अन्य वस्तु हैं जिसका परीदान किया जा सकता हैं , और उसका कोई भी पक्षकार यह स्वीकार करता हैं कि वह ऐसे धन या ऐसी अन्य वस्तु को किसी अन्य पक्षकार के न्यासी के रूप में धारण किये हुए हैं या वह अन्य पक्षकार की हैं या अन्य पक्षकार को शोध्य हैं वहा न्यायालय अपने अतिरिक्त निदेश के अधीन रहते हुए यह आदेश दे सकता हैं कि उसे न्यायालय में जमा किया जाये या प्रतिभूति सहित या रहित ऐसे अंतिम नामित पक्षकार को परिदत्त किया जाये ।

   वाद प्रस्तुत होने के पश्चात वादी को तत्काल राहत प्रदान करने के लिए न्यायालय द्वारा जो अस्थाई व्यादेश प्रदान किया जाता हैं सामान्य भाषा में जिसे स्थगन भी कहा जाता हैं दीवानी विधि की एक महत्वपूर्ण उपबंध हे जो बहुत उपयोगी उपबंध होने से आगे सभी विभिन्न नियमो का क़ानूनी नजीरो सहित विवेचन किया जायेगा |



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ORDER 9 RULE 4 CPC. Plaintiff may bring fresh suit or court may restore suit to file. 

आदेश 9 नियम 4 सी. पी. सी. वादी नया वाद ला सकेगा या न्यायालय वाद को फाइल पर पुनःस्थापित कर सकेगा -





       न्यायिक प्रक्रिया में विधि का यह सुस्थापित सिद्धांत हैं की प्रत्येक न्यायिक कर्यवाही या विचारण पक्षकारो की उपस्थिति में किया जाना चाहिए। न्यायालय सामान्यतः पक्षकारो की अनुपस्थिति में किसी प्रकार की कर्यवाही का विचारण नही करता हैं इसी कारण किसी कार्यवाही के प्रारम्भ किये जाने के पूर्व न्यायालय विरोधी पक्षकार को समन द्वारा न्यायालय में उपस्थित रहने हेतु आहूत करते हैं तथा न्यायालय के ऐसे समन की पलना ना करने पर पक्षकार को उसके परिणाम भुगतने होते हैं। इसी प्रक्रिया के बारे में आदेश 9 में उपबंध किये गये हैं। इस आदेश का नियम 4 महत्वपूर्ण उपबंध है। यदि नियम 2 व 3 के अंतर्गत वादी का वाद ख़ारिज कर दिया जाता है तो वादी के पास क्या उपचार उपलब्ध है। संहिता के आदेश 9 नियम 4 में इस सम्बन्ध में व्यवस्था की गयी है। नियम 4 का विस्तृत विवेचन किया जा रहा है।

        आदेश 9 नियम 4 - वादी नया वाद ला सकेगा या न्यायालय वाद को फाइल पर पुनःस्थापित कर सकेगा -

        जहा वाद नियम 2 या नियम 3 के अधीन ख़ारिज कर दिया जाता हैं वहा वादी नया वाद ( परिसीमा के विधि के अधीन रहते हुए ) ला सकेगा या वह उस उस खारिजी को अपास्त कराने के आदेश के लिए आवेदन कर सकेगा और यदि वह न्यायालय को यह समाधान कर देता हैं यथा स्थिति नियम 2 में निर्दिष्ट असफलता के लिए या उसकी अनुपस्थिति के लिए प्रयाप्त कारण था तो न्यायालय ख़ारिजी के आदेश को अपास्त कराने के लिए आदेश करेगा और वाद में आगे कार्यवाही करने के लिए दिन नियत करेगा | इस नियम के अध्ययन से स्पष्ट है कि वाद नियम 2 व 3 की असफलता के कारण ख़ारिज हुआ हो। तो वादी के पास निम्न उपचार उपलब्ध है-- 1. वादी उसी हेतुक पर नया वाद ला सकता है। 2. वादी नियत दिनांक को अपनी अनुपसंजाति का पर्याप्त हेतुक बताकर न्यायलय को संतुष्ट करने पर खारीजी के आदेश को अपास्त करा कर वाद को पुनर्स्थापित करा सकता है।
       यह नियम जो वाद नियम 2 व 3 की असफलता के कारण ख़ारिज होते है उन्ही पर लागू होते है। इस कारण आदेश 9 के उक्त नियमो के अध्यन के लिए यहां click कर पढ़े।

       इस प्रकार स्पष्ट है कि जहां वादी व प्रतिवादी दोनों ही सुनवाई की दिनांक को अनुउपसंजात रहते है वहां यह नियम लागू होता है। यदि सुनवाई के दिन प्रतिवादी ही उपसंजात होता है और वाद नियम 8 के अधीन ख़ारिज होता है तो उक्त नियम के प्रावधान लागु नहीं होते है व आदेश 9 नियम 9 के प्रावधान लागु होगे।

 आदेश 9 नियम 9 के विस्तृत अध्ययन के लिए यहा Click कर पढ़े।

      सारांश यह है कि जहा कोई वाद आदेश 9 के नियम 2,3 व 5 के अंतर्गत ख़ारिज किया जाता है तो वादी उसी हेतुक पर नया वाद ला सकता है या वाद पुनर्स्थापित करा सकता है परंतु नियम 8 के अधीन ख़ारिज किये वाद में वादी उसी हेतुक पर नया वाद नहीं ला सकता है। उसे नियम 9 की और ही अग्रसर होने होगा।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ठ है कि वादों के विचारण में यह महत्वपूर्ण उपबंध है।

 इस संबंध में निम्न न्यायिक महत्वपूर्ण निर्णय इस उपबंध को समझने के लिए दिए जा रहे है--

1. सारभूत न्याय को विफल करने के लिए तकनिकी आपत्तियों को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिये।
      RLW 2005 (1)Raj. 185 

2. पर्याप्त हेतु दर्शाने पर परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के तहत अवधि बढ़ाई जा सकती है।
      2007(1) RLW 191 (SC) 

3. आवेदन को प्रतिवादी को सुचना दिए बिना प्रतिस्थापित किया।आदेश अवैध है। प्रतिस्थापित होने के बाद भी एकतरफा कार्यवाही नहीं की जा सकती है उसकी प्रतिवादी को सुचना देना आवश्यक है।
      AIR 1992 Raj. 57

4. आवेदन वादी के बिना हस्ताक्षर और बिना वकालतनामा प्रस्तुत किया गया।प्रार्थना पत्र पोषणीय नहीं है।           AIR 2001 Del. 19 

5. अधिवक्ता की मृत्यु होने पर नया वकालतनामा पेश नहीं होने से वाद ख़ारिज हुआ।वाद के पुनः स्थापन का आवेदन ख़ारिज किया।मृतक एड्वोकेट के एड्वोकेट पुत्र की गलती के लिए पक्षकार पीड़ित नहीं हो सकता -- निर्णीत- आदेश अपास्त किया व वाद पुनः स्थापित किया गया।
      2012 (1) DNJ Raj. 19 

सम्बन्धित न्याय निर्णय-- 

1. AIR 1996 SC 181 

2. AIR 1996 Kant. 91  

3. AIR 1993 Bom.160 

4. AIR 2003 Raj. 98 

5. 2004 (3) DNJ (Raj.)1427 



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      ORDER 9 RULE 9 CPC
Decree against plaintiff by default bars fresh suit

     

आदेश 9 नियम 9 - चूक के कारण वादी के विरूद्ध पारित डिक्री नये वाद का वर्जन करती हैं -


(1) जहां वाद नियम 8 के अधीन पूर्णतः या भागतः ख़ारिज कर दिया जाता है और वादी उपसंजात नहीं होता है वहां वादी उसी वाद हेतुक के लिए नया वाद लाने से प्रवारित हो जायेगा।किन्तु वह खारीजी के आदेश को अपास्त करने के लिए आवेदन कर सकेगा।
और यदि वह न्यायालय को समाधान कर देता है कि जब वाद की सुनवाई की पुकार हुई थी उस समय उसकी अनुपसंजाति के लिए पर्याप्त हेतुक (कारण) था तो न्यायालय खर्चो या अन्य बातों के बारे में ऐसी शर्तो पर जो वह ठीक समझे, खारीजी के आदेश को अपास्त करने का आदेश करेगा और वाद में आगे की कार्यवाही करने के लिए दिन नियत करेगा।
(2) इस नियम के अधीन कोई आदेश तब तक नहीं किया जायेगा जब तक की आवेदन की सुचना की तामील विरोधी पक्षकार पर न कर दी हो।
इस नियम के अध्ययन से स्पष्ट है कि यदि नियम 8 के अधीन वाद ख़ारिज होता है तो वादी उसी वाद हेतुक पर नया वाद नहीं ला सकता है।जबकि नियम 2 व 3 तथा 5 के अधीन किये गये  वाद ख़ारिज के आदेश होने पर वादी नया वाद भी ला सकता है।यहाँ नियम 8 का उल्लेख आवश्यक है जो निम्न है-
     नियम 8 - जहा केवल प्रतिवादी उपसंजात होता हैं वहा प्रक्रियां-
 
   नियत तारीख को प्रतिवादी उपस्थित होता हैं और वादी उपस्थित नही होता हैं वह न्यायालय आदेश करेगा की वाद को ख़ारिज किया जाये | किन्तु यदि प्रतिवादी दावे या उसके भाग को स्वीकार कर लेता हैं तो न्यायालय ऐसी स्वीकृति पर प्रतिवादी के विरूद्ध डिक्री पारित करेगा और जहां दावे का केवल भाग ही स्वीकार किया हैं वहा वाद को वहा तक ख़ारिज करेगा जहा तक उसका सम्बन्ध अविशिष्ट दावे से हैं।
  नियम 9 के अन्य उपबंध के अध्यन के लिए यहां Click करे।
नियम 8 के अंतर्गत यदि न्यायालय कोई वाद ख़ारिज करने का आदेश पारित करता है वहां वादी के पास एक मात्र उपचार उस खारीजी के आदेश को अपास्त करवाकर वाद को पुनर्स्थापित कर वाद की सुनवाई कराना है।यह उपबंध ऐसे ख़ारिज किये वाद बाबत उसी हेतुक पर नया वाद लाने से वादी को रोकती है।
   वाद ख़ारिज के आदेश को अपास्त करने की शर्तें--
(1) वादी इस आशय का आवेदन करेगा कि नियत सुनवाई के रोज उसकी अनुपस्थति का पर्याप्त हेतुक था।
(2)  न्यायालय को अनुपस्थति बाबत दिये कारणों से संतुष्टि होनी चाहिये।
(3) प्रार्थना पत्र के साथ किये गये कथनो के समर्थन में शपथ पत्र या दस्तावेज यदि हो तो प्रस्तुत करना चाहिये।
(4)आदेश को अपास्त करना न्यायालय का विवेकाधीन है।
(5) न्यायायलय आदेश अपास्त करते समय वादी पर खर्चा का आदेश दे सकेगा जो वह न्यायोचित समझे।
(6)विरोधी पक्षकार को सुनवाई का नोटिस दिया जाना आवश्यक होगा।
यदि न्यायालय आदेश 9 के अधीन प्रस्तुत किये आवेदन को अस्वीकार कर देता है तो आदेश 43 नियम 1.(ग़) के अंतर्गत वादी उस आदेश के विरुद्ध अपील कर सकता है।परंतु यदि न्यायालय वादी के आदेश 9 के अंतर्गत आवेदन को स्वीकार कर लेता है तो प्रतिवादी आदेश 43 के अंतर्गत अपील नहीं कर सकेगा।
 
        उपरोक्त विवेचन से स्पष्ठ है कि वादों के विचारण में यह महत्वपूर्ण उपबंध है। इस संबंध में निम्न न्यायिक महत्वपूर्ण निर्णय इस उपबंध को समझने के लिए दिए जा रहे है--
1. यदि किसी मामले में प्रतिवादी के विरुद्ध एकपक्षीय सुनवाई का आदेश दिया जा चूका हो तब मामले के किसी प्रक्रम पर सूचना की आवश्यकता नहीं है।ऐसे मामले में आदेश 9 नियम 9 के अधीन भी सुचना आवश्यक नहीं है।
    AIR 1988 Raj. 201
(2) आवेदन प्रतुत करने की परिसीमा आर्टिकल 137 लागु होगा न कि आर्टिकल 127 लागु होगा।
     AIR 1994 NOC 148 (All)
(3) हिन्दू विवाह अधिनियम के अंतर्गत प्रस्तुत वाद पूर्ण या भागतः आदेश 9 नियम 8 के अंतर्गत ख़ारिज होने पर वादी उसी हेतुक पर नया वाद नहीं ला सकेगा। यह उपबंध हिन्दू विवाह अधिनियम के अधीन कार्यवाहियों में भी लागू होता है।
      AIR 1991 Ker.362
(4)  प्रार्थना पत्र में विरोधाभाषी कथन- अपिलान्ट्स की लापरवाही थी।परिसीमा के बाहर लापरवाही उपश्मित नहीं की जा सकती--
निर्णीत- अपील खारिज की गयी।  2013 (4) DNJ (Raj) 1693
5.जहा वादी द्वारा साक्ष्य प्रस्तुत नहीं करने में असफल रहने पर वाद ख़ारिज किया गया हो तब मेरिट पर तय होना नहीं माना जा सकता है।आदेश 9 नियम 9 के उपबंध लागु होंगे।खारीजी का आदेश O 17 Rule 2 के अंतर्गत हुआ न की नियम 3 के अंतर्गत।
 AIR 1994 Noc. 77  (Gau)
6.प्राथी ने बीमारी का युक्तियुक्त एवम सदभावी कारण आवेदन में प्रकट किया।शपथपत्र व चिकित्सा का प्रमाण पत्र भी पेश किया।अधिवक्ता की गलती के लिए appellant को दोषी नहीं ठहराया जा सकता-5000 रु. के खर्चे पर वाद रेस्टोरेड किया गया।
2006 (2) DNJ( Raj) 591
7. याचीगण की और से कोई उपस्थित नहीं हुआ।आवेदन चूक के कारण ख़ारिज हुआ।याचीगण ने सही तथ्य छुपाए।आर्टिकल 226 के अंतर्गत मामला नहीं बनता है।रिट याचिका खारिज की गयी।
 2012 (2) DNJ (Raj.) 969
8. उत्तराधिकार याचिका खारिज की गयी। अगले दिन आवेदन पेश हुआ। आवेदन ख़ारिज किया- न्यायालय को उदार दृष्टिकोण अपनाना चाहिये।जन सामान्य की और से कोई पेश नहीं।
निर्णीत--आदेश अपास्त किया और उत्तराधिकार याचिका को प्रत्यावर्तित किया।
  2011 (1) DNJ (Raj.) 373

 इस प्रकार यह सहिंता का एक महत्वपूर्ण उपबंध है और अंत में     यह उल्लेख करना आवश्यक हैं की आदेश 9 के नियम 2,3,5 के अंतर्गत ख़ारिज किये गये पर नये वाद संस्थित किये जा सकते हैं यदि परिसीमा विधि से बाधित ना हो, परन्तु नया वाद संस्थित नही किया जा सकेगा यदि नियम 8 के अंतर्गत ख़ारिज किया गया हैं।
        प्रतिवादी के विरुद्ध की गयी एकपक्षीय डिक्री को अपास्त करने के उपबंध संहिता के आदेश 9 नियम 13 में किये गये है उसके विस्तृत अध्ययन के लिए यहाँ Click कर पढ़े।


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Order 9 Rule 7 CPC --Setting  aside the ex-parte order.
आदेश 9 नियम 7 सी. पी. सी. 

एकपक्षीय आदेशो को अपास्त किया जाना।

      न्यायिक प्रक्रिया में प्रति वादी को समन की तामील सभ्यक रूप से हो जाती है तथा उसके उपरांत प्रतिवादी नियत दिनांक को न्यायालय में उपसंजात नहीं होता है तो न्यायालय नियम आदेश 6 (क) के अंतर्गत एकपक्षीय सुनवाई का आदेश दे सकता है।

आदेश 9 के अन्य उपबंध की जानकारी के लिए यहां click करे।

       जब न्यायालय द्वारा एकपक्षीय सुनवाई का आदेश पारित कर दिया जाता है तब प्रतिवादी न्यायालय में आवेदन शपथ पत्र सहित दे कर तथा उपसंजात नहीं होने के अच्छा हेतुक (कारण) बताने पर उसके विरुद्ध एकपक्षीय आदेश को न्यायालय से अपास्त करा सकता है। सहिंता के नियम 7 में इस बारे में व्यवस्था की गयी है जो इस प्रकार है--
नियम 7 - जहा प्रतिवादी स्थगित सुनवाई के दिन उपसंजात होता हैं और पूर्व अनुपसंजाति के लिए अच्छा कारण बताता हैं वहा प्रक्रिया -
 
   जहां न्यायालय ने एकपक्षीय रूप से वाद की सुनवाई स्थगित कर दी हैं और प्रतिवादी ऐसी सुनवाई के दिन या पहले उपसंजात होता हैं और अपनी पूर्व अनुपसंजाति के लिए अच्छा कारण बताता हैं वहा ऐसे शर्तो पर जो न्यायालय खर्चो और अन्य बातो के बारे में निर्दिष्ट करे, उसे वाद के उत्तर में उसी भांति सुना जा सकेगा मानो वह अपनी उपसंजाति के लिए नियत किये गये दिन को उपसंजात हुआ था |

       संहिता का यह महत्वपूर्ण उपबंध है।इसका उद्देश्य यह है कि किसी कारण प्रतिवादी या उसका अधिवक्ता नियत तारीख को न्यायालय में उपसंजात नहीं होने पर उसके विरुद्ध एकपक्षीय कार्यवाही का विचारण का न्यायालय आदेश पारित कर देता है तथा उस दिन उपसंजात नहीं होने का प्रतिवादी उचित कारण बताकर न्यायालय को संतुष्ठ कर देता है तो वही न्यायालय उसके द्वारा पारित आदेश को वापिस ले लेगा और कार्यवाही में उसे उसी प्रकार सुना जायेगा मानों वह नियत तारीख को उपसंजात हुआ हो।इस प्रकार इस नियम के अंतगर्त न्यायालय को अपने द्वारा पारित किये आदेश को अपास्त करने की शाक्ति प्रदान की गयी है।

    कोई भी व्यक्ति न्याय से वंचित नही हो तथा खर्चे हर्जे से जेरबार न हो इसलिए सहिंता में प्रतिवादी के विरुद्ध एकपक्षीय कार्यवाही के पारित आदेश को अपास्त करने का विशेष उपबंध किया गया है।

        इसके अध्यन से स्पष्ट है कि प्रतिवादी वाद के विचारण के किसी प्रक्रम पर एकपक्षीय कार्यवाही के आदेश को अपास्त करने का आवेदन प्रस्तुत कर सकता है।यदि न्यायालय द्वारा एकपक्षीय डिक्री प्रदान न कर दी हो।

     एकपक्षीय डिक्री को अपास्त करने के उपबंध को यहा click कर पढ़े।

        उपरोक्त विवेचन से स्पष्ठ है कि वादों के विचारण में यह महत्वपूर्ण उपबंध है। इस संबंध में निम्न न्यायिक महत्वपूर्ण निर्णय इस उपबंध को समझने के लिए दिए जा रहे है--

1.एकपक्षीय आदेश को अपास्त करने का प्राथना पत्र बहस की स्टेज पर दिया गया।बहस पूर्ण नहीं हो सकी थी।इस स्टेज पर दिए गए
प्राथना पत्र और उस पर एकपक्षीय आदेश को अपास्त करने के आदेश को अवैध (illegal)  नहीं है।
        AIR 2002 All. 360
2. एकपक्षीय कार्यवाही--एकपक्षीय कार्यवाही को अपास्त करने का प्राथना पत्र ख़ारिज हुआ।उत्तरवर्ती  वादी द्वारा वादपत्र के संशोधन का प्रार्थना पत्र स्वीकार हुआ।प्रतिवादी ने अतिरिक्त लिखित कथन हेतु नया आवेदन पेश किया।अभिनिर्धारित-
पूर्व न्याय के सिद्धान्त के अनुसार प्रतिवादी का प्रार्थना पत्र वर्जित है।
         AIR 2001 All.78

3. प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत आवेदन में वर्णित आधारों को उसकी उपसंजात नहीं होने को अधीनस्थ न्यायालय द्वारा अस्वीकार किया गया।अभिनिर्धारित--अपने वाद की पैरवी करने में प्रतिवादी सजग है तथा कोई कारण नहीं है कि वह जानबूझकर अनुपस्थित रहेगा।विचारण न्यायायलय ने प्रतिवादी के अनुपस्थित असावधानी पूर्वक रहने की उपधारणा करने में त्रुटि की है।एक पक्षीय कार्यवाही का आदेश 500 रूपये कॉस्ट पर अपास्त किया।
     1999 (2)DNJ (Raj.) 769

4. आदेश 39 नियम 7 के मामले में न्यायालय ने कोई आदेश नहीं दिया।यही आदेश दिया कि एक पक्षीय कार्यवाही की जावे।प्राथी बिना कोई आवेदन दिए कार्यवाही में भाग ले सकेगा।
       1995 (2) Raj. 372
       
5.  आवेदन इस आधार पर दिया की मामले की जानकारी 19.09.2009 को हुई। सही पते पर भेजा गया रजिस्टर्ड पत्र स्वीकार करने से प्रार्थिया ने इंकार किया। यह सही नहीं है कि प्रार्थिया को नोटिस तामील नहीं हुआ।यदि आदेश 5 नियम 9 की प्रक्रिया का अनुसरण नहीं किया तब भी प्रार्थिया पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं।बचाव कूटरचित है--
निर्णीत- आवेदन ख़ारिज करने का आदेश न्यायसंगत है।
     2010 (2) DNJ Raj. 721.

6.  नियम 7 का विस्तार--वादी का साक्ष्य पूरा।कई मौके देने के उपरांत प्रतिवादी ने साक्ष्य पेश नहीं की।विचारण न्यायालय ने साक्ष्य बंद की।प्रार्थी ने उक्त आदेश अपास्त बाबत आवेदन दिया।अभिलेख पर यह सामग्री मौजूद है कि उक्त तिथि को प्रार्थी न्यायालय में उपस्थित होने की स्थिति में नहीं था।
निर्णीत- विचारण न्यायालय द्वारा प्रार्थी के द्वारा प्रस्तुत आदेश 9 नियम 7 के अंतर्गत आवेदन को अस्वीकार करना न्यायोचित नहीं था--विचारण न्यायालय अगली तारीख पर साक्ष्य पेश करने का अवसर देवे तथा उसके बाद कार्यवाही में अग्रसर हो।
      2012 (1) DNJ Raj. 40

7. जहाँ वाद की सुनवाई पूरी हो चुकी हो। वाद निर्णय हेतु स्थगित किया हो वहां आदेश 9 नियम 7 के अंतगर्त आवेदन पोषणीय नहीं होगा।
        RLW 2005 (3) SC 399

8.   यह दर्शाने वाली सामग्री नहीं की वाद के लम्बित रहने के दौरान 1993 से 2010 तक अवधि में प्राथी प्रतिवादी कहाँ पर रहे।विचारण न्यायालय द्वारा आवेदन को अस्वीकार करना न्यायोचित था।
   2012 (1) DNJ Raj.36




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Order 9 rule 13 CPC--Setting aside decree ex parte against defendant.
आदेश 9 नियम 13 सी. पी. सी.--
प्रतिवादी के विरुद्ध एकपक्षीय डिक्री को अपास्त करना 


न्यायिक प्रक्रिया में विधि का यह सुस्थापित सिद्धांत हैं की प्रत्येक न्यायिक कर्यवाही या विचारण पक्षकारो की उपस्थिति में किया जाना चाहिए | न्यायालय सामान्यतः पक्षकारो की अनुपस्थिति में किसी प्रकार की कर्यवाही का विचारण नही करता हैं इसी कारण किसी कार्यवाही के प्रारम्भ किये जाने के पूर्व न्यायालय विरोधी पक्षकार को समन द्वारा  न्यायालय में उपस्थित रहने हेतु आहूत करते हैं तथा न्यायालय के ऐसे समन की पलना ना करने पर पक्षकार को उसके परिणाम भुगतने होते हैं | इसी प्रक्रिया के बारे में आदेश 9 में उपबंध किये गये हैं |आदेश 9 नियम 6 के अंतर्गत यदि सभ्यक तामील के उपरांत प्रतिवादी नियत दिनांक को उपस्थित नहीं होता है तब न्यायालय उसके विरुद्ध एकपक्षीय कार्यवाही का आदेश कर सकेगा।तथा इस आदेश में उल्लेखित उपबंधों के अंतर्गत विचारण के दौरान एकपक्षीय आदेश को अपास्त नहीं कराने की सूरत में न्यायालय एकपक्षीय डिक्री वादी के पक्ष में पारित कर सकेगा।

अन्य आदेश 9 के अन्य  उपबंधों की जानकारी के लिये यहाँ clik करे।

आदेश 9 नियम 13 सी. पी. सी. में एकपक्षीय डिक्रीयो को अपास्त करने सम्बन्धी प्रक्रिया दी गयी है।
नियम 13-- प्रतिवादी के विरुद्ध एकपक्षीय डिक्री को अपास्त करना--किसी ऐसे मामले में जिसमे डिक्री प्रतिवादी के विरुद्ध एकपक्षीय पारित की गयी है,वह प्रतिवादी उसे अपास्त करने के आदेश के लिए आवेदन उस न्यायालय में कर सकेगा जिसके द्वारा वह डिक्री पारित की गयी थी और यदि वह न्यायालय को यह समाधान कर देता है कि समन की तामील सभ्यक रूप से नहीं की गयी थी या वह वाद की सुनवाई के समय उपस्थित होने से किसी पर्याप्त कारण के अनुउपस्थित रहा था तो खर्चो के बारे में,न्यायालय में जमा करने के या अन्यथा ऐसे निबन्धनों पर जो वह ठीक समझे,न्यायालय यह आदेश करेगा कि जहां तक डिक्री उस प्रतिवादी के विरुद्ध है वहां तक अपास्त कर दी जाय और वाद को आगे कार्यवाही के लिए दिन नियत करेगा:

     परन्तु जहां डिक्री ऐसी है कि केवल ऐसे प्रतिवादी के विरुद्ध अपास्त नहीं की जा सकती वहा वह अन्य सभी प्रतिवादियों या उनमे से किसी या किन्ही के विरुद्ध भी अपास्त की जा सकेगी;
      परन्तु यह और कि यदि न्यायालय को यह समाधान हो जाता है कि प्रतिवादी को सुनवाई की तारीख की सुचना थी और उपसंजात होने के लिए और वादी के दावे का उत्तर देने के लिए पर्याप्त समय था तो वह एकपक्षीय पारित डिक्री को केवल इस आधार पर अपास्त नहीं करेगा कि समन की तामील में अनियमता हुई थी।

स्पष्टीकरण- जहां इस नियम के अधीन एकपक्षीय डिक्री के विरुद्ध अपील की गयी है और अपील का निपटारा इस आधार से भिन्न किसी आधार पर कर दिया गया है कि अपीलार्थी ने अपील वापिस ले ली है वहां उस एकपक्षीय डिक्री को अपास्त करने के लिए इस नियम के अधीन कोई आवेदन नहीं होगा।

   इस नियम के अधीन उसी न्यायालय जिसके द्वारा डिक्री प्रदान की गयी है उसी न्यायालय द्वारा नियम में उल्लेखित शर्तो के अनुसार एकपक्षीय डिक्री को अपास्त करने की शक्ति न्यायालय
को प्रदान की गयी है।

     यह संहिता का महत्व पूर्ण उपबंध है।प्रतिवादी की जानकारी के बिना उसके विरुद्ध एकपक्षीय डिक्री हो जाने पर उसे जानकारी होने पर उस एकपक्षीय डिक्री को उसी न्यायालय द्वारा डिक्री को अपास्त करने का अधिकार दिया गया है।इसके अलावा प्रतिवादी को निम्न उपचार संहिता में दिये गये है--

1.  प्रतिवादी द्वारा उस डिक्री के विरुद्ध अपील कर सकता है
                        (धारा 96)
2.पुनर्विलोकन कर सकता है।
         (धारा 114 व आदेश 47)
इस नियम का विवेचन निम्न न्याय निर्णयों में निम्न प्रकार से विवेचित किया गया है--

1. अधिवक्ता द्वारा पक्षकार को सुचना दिए बिना वकालतनामा  विड्रॉल करने से एकपक्षीय कार्यवाही--देरी को क्षमा कर एक पक्षीय डिक्री को अपास्त की।
    1996(2) DNJ (S C)402

2.एकपक्षीय डिक्री अधिवक्ता की गलती से पारित हुई। आवेदन पेश करने में 63 दिन का विलम्ब।वकील की त्रुटि के कारण पक्षकार पीड़ित नहीं होना चाहिये।अभिनिर्धारित--विलम्ब शमन एवम एक तरफ़ा डिक्री अपास्त की गयी।
       1998(2)DNJ (Raj.)747

3.एकपक्षीय डिक्री को अपास्त करने के आवेदन के साथ विलम्ब क्षमा का अलग से प्राथना पत्र की आवश्यकता नहीं है।
           AIR 1988 Ker.257

4. वाद का स्थान्तरण होने की सुचना नहीं दी गयी।जिससे प्राथी को उपसंजात होने की जानकारी नहीं हुई।एकपक्षीय डिक्री को अपास्त करने का अच्छा आधार माना गया।
      AIR 1995 AP 58

5. अधिवक्ता द्वारा हड़ताल के कारण उपस्तिथि नहीं दी।एकपक्षीय डिक्री कॉस्ट से अपास्त की गयी।
         AIR 2001 SC 207

6.एकपक्षीय व्यादेश का आदेश डिक्री नहीं है।तथा उसकी अपील आदेश 43 नियम 1सपठित धारा 104 के अन्तर्गत अपीलीय आदेश है। आदेश 9 नियम 13 के उपबंध लागु नहीं होते है।
7. हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13-  रेस्पोडेन्ट पत्नि पर समन की प्रभावी तामील नहीं हुई।
एकपक्षीय डिक्री अपास्त के आदेश में अवैधता नहीं है।
8. आदेश 5 नियम 17 का अवलंब लिए बिना प्रतिस्थापित तामील द्वारा तामील की गयी।एकपक्षीय डिक्री अपास्त की गयी।
       2014 (2) DNJ Raj.568

     उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यह महत्वपूर्ण उपबंध है।




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ORDER 9 C.P.C.

 Appearance of parties and consquence of non appearance

 पक्षकारो की उपसंजाति और उनकी अनुपसंजाति का परिणाम


    न्यायिक प्रक्रिया में विधि का यह सुस्थापित सिद्धांत हैं की प्रत्येक न्यायिक कर्यवाही या विचारण पक्षकारो की उपस्थिति में किया जाना चाहिए | न्यायालय सामान्यतः पक्षकारो की अनुपस्थिति में किसी प्रकार की कर्यवाही का विचारण नही करता हैं इसी कारण किसी कार्यवाही के प्रारम्भ किये जाने के पूर्व न्यायालय विरोधी पक्षकार को समन द्वारा  न्यायालय में उपस्थित रहने हेतु आहूत करते हैं तथा न्यायालय के ऐसे समन की पलना ना करने पर पक्षकार को उसके परिणाम भुगतने होते हैं | इसी प्रक्रिया के बारे में आदेश 9 में उपबंध किये गये हैं |
आदेश 9 - पक्षकारो की उपसंजाति और उनकी अनुपसंजाति का परिणाम
नियम 1 - पक्षकार उस दिन उपसंजात होंगे जो प्रतिवादी के उपसंजात होने और  उतर देने के लिए समन में नियत हैं - 

   न्यायालय द्वारा दिए गये समन में सुनवाई के लिए नियत किये गये दिन वादी तथा प्रतिवादी दोनों ही न्यायालय में या तो स्वयं या अपने अधिवक्ता अथवा प्लीडर द्वारा न्यायालय में उपस्थित रहेंगे तब के सिवाए जबकि सुनवाई न्यायालय द्वारा किसी आगामी दिन के लिए स्थगित कर दी जाये और वाद उस दिन सुना जायेगा

नियम 2 - जहा समनो की तामिल, खर्चे देने में वादी के असफल रहने के परिणाम स्वरुप नही हुई हैं वह वाद का ख़ारिज किया जाना -

  
 समन में नियत तारीख को प्रतिवादी पर समन की तामिल इसलिए नही हुई हो की न्यायालय फीस या डाक व्यय यदि कोई हो और वह देने में वादी असफल रहा हो तो न्यायालय वाद ख़ारिज करने का आदेश दे सकेगा |

नियम 3 - जहा दोनों मे से कोई भी पक्षकार उपसंजात नही होता हैं वह वाद का ख़ारिज किया जाना -

   नियत तिथि को दोनों में से कोई भी पक्षकार उपस्थित नही होते हैं तो वहा न्यायालय आदेश दे सकेगा की वाद ख़ारिज कर दिया जाये |

नियम 4 - वादी नया वाद ला सकेगा या न्यायालय वाद को फाइल पर पुनःस्थापित कर सकेगा - 

   जहा वाद नियम 2 या नियम 3 के अधीन ख़ारिज कर दिया जाता हैं वहा वादी नया वाद ( परिसीमा के विधि के अधीन रहते हुए ) ला सकेगा या उस खारिजी को अपास्त करने के लिए आवेदन कर सकेगा और यदि वह न्यायालय को यह समाधान कर देता हैं की उक्त दिनांक को अपनी अनुपस्थिति के लिए प्रयाप्त कारण था तो न्यायालय ख़ारिजी के आदेश को अपास्त कर वाद को पुनःस्थापित कर वाद में आगे कार्यवाही करने के लिए दिन नियत करेगा |

नियम 5 - जहाँ वादी, समन तामिल के बिना लोटने के पश्चात एक माह तक नये समन के लिए आवेदन करने में असफल रहता हैं वहा वाद का ख़ारिज किया जाना - 

   [1] यदि प्रतिवादी पर समन तामिल नही होता हैं और समन की तामिल के बिना लोटाये जाने के पश्चात उस तारीख से 7 दिन की अवधि तक जिसकी न्यायालय को उस अधिकारी ने विवरणी दी हैं और उस विवरणी को न्यायालय मामूली तौर पर प्रमाणित करता हैं वहा वादी न्यायालय से नए समन निकालने के लिए आवेदन करने में असफल रहता  है वहां न्यायालय यह आदेश करेगा की वाद ऐसे प्रतिवादी के विरुद्ध ख़ारिज कर दिया जाये परन्तु यदि वादी न्यायालय को यह समाधान उक्त अवधि के भीतर कर देता हैं की -

  (क) जिस प्रतिवादी की तामिल नही हुयी हैं उसके निवास स्थान का पता लगाने में वह सर्वोतम प्रयास करने के पश्चात असफल रहा हैं , अथवा
  (ख) ऐसा प्रतिवादी समन की तामिल से बचने का प्रयास कर रहा हैं,
  (ग) समय को बढाने के लिए अन्य कोई प्रयाप्त कारण हैं,
 तो ऐसा आवेदन करने के लिए समय को न्यायालय इतनी अतिरिक्त अवधि के लिए बढा सकेगा जितनी वह ठीक समझे |

   [2] ऐसी दशा में वादी (परिसीमा अवधि के अधीन रहते हुए ) नया वाद ला सकेगा

नियम 6 - जब केवल वादी उपसंजात होता हैं तब प्रक्रियां -

   [1] जहां वादी सुनवाई के दिन उपसंजात होता हैं और प्रतिवादी उपसंजात नही होता हैं वहां -
(क) यदि यह साबित हो जाता हैं की समन की तामिल सभ्यक रूप से की गयी थी तो न्यायालय वाद की एकपक्षीय की सुनवाई कर सकेगा,
(ख) यदि यह साबित नही होता हैं की समन की तामिल सभ्यक रूप से की गयी थी तो न्यायालय प्रतिवादी की तामिल हेतु दुबारा समन का आदेश दे सकेगा,
(ग) यदि यह साबित हो जाता हैं की समन की तामिल प्रतिवादी पर हुयी थी किन्तु ऐसे समय पर नही हुयी थी की समन में नियत दिन को उपसंजात होने और उतर देने का उसे प्रयाप्त समय मिल जाता,
तो न्यायालय वाद की सुनवाई को न्यायालय द्वारा नियत किये जाने वाले किसी आगामी दिन के लिए स्थगित करेगा और निर्देश देगा की ऐसे दिन की सुचना प्रतिवादी को दी जाये |  

   [2] जहा समन की सभ्यक रूप से तामिल या प्राप्त समय के भीतर तामिल वादी की चूक के कारण नही हुई हैं वह न्यायालय वादी को आदेश देगा की स्थगित होने के कारण होने वाले खर्चो को वह दे  |

नियम 7 - जहा प्रतिवादी स्थगित सुनवाई के दिन उपसंजात होता हैं और पूर्व अनुपसंजाति के लिए अच्छा कारण बताता हैं वहा प्रक्रिया - 
   
   जहां न्यायालय ने एकपक्षीय रूप से वाद की सुनवाई स्थगित कर दी हैं और प्रतिवादी ऐसी सुनवाई के दिन या पहले उपसंजात होता हैं और अपनी पूर्व अनुपसंजाति के लिए अच्छा कारण बताता हैं वहा ऐसे शर्तो पर जो न्यायालय खर्चो और अन्य बातो के बारे में निर्दिष्ट करे, उसे वाद के उत्तर में उसी भांति सुना जा सकेगा मानो वह अपनी उपसंजाति के लिए नियत किये गये दिन को उपसंजात हुआ था |

नियम 8 - जहा केवल प्रतिवादी उपसंजात होता हैं वहा प्रक्रियां-
   
   नियत तारीख को प्रतिवादी उपस्थित होता हैं और वादी उपस्थित नही होता हैं वह न्यायालय आदेश करेगा की वाद को ख़ारिज किया जाये | किन्तु यदि प्रतिवादी दावे या उसके भाग को स्वीकार कर लेता हैं तो न्यायालय ऐसी स्वीकृति पर प्रतिवादी के विरूद्ध डिक्री पारित करेगा और जहां दावे का केवल भाग ही स्वीकार किया हैं वहा वाद को वहा तक ख़ारिज करेगा जहा तक उसका सम्बन्ध अविशिष्ट दावे से हैं |

नियम 9 - चूक के कारण वादी के विरूद्ध पारित डिक्री नये वाद का वर्जन करती हैं -  
   
    [1]  जहा वाद नियम 8 के अधीन ख़ारिज किया जाता हैं तो वादी को नया वाद संस्थित करने का अधिकार नही होगा |

नियम 10 - कई वादियो में से एक या अधिक गैर हाजरी की दशा में प्रक्रियां -
   
   कई वादियो में से एक या अधिक गैर हाजरी की दशा में एक या अधिक वादी उपस्थित होते हैं वहां वादियो की प्रेरणा पर वाद ऐसे आगे चलने दे सकेगा मानो सभी उपसंजात हुए हो, ऐसा आदेश कर सकेगा जो वह ठीक समझे |

नियम 11 - कई प्रतिवादियो में से एक या अधिक गैर हाजरी की दशा में प्रक्रियां - 
  
   जहा एक से अधिक प्रतिवादी हैं और उनमे से एक या अधिक उपसंजात नही होते हैं वहा वाद आगे चलेगा और न्यायालय निर्णय सुनाने के समय जो उपसंजात नही हुए उनके विरूद्ध ऐसा आदेश करेगा जो वह ठीक समझे |
नियम 12 - स्वयं उपसंजात होने के लिए आदिष्ट पक्षकार के प्रयाप्त हेतुक दर्शित किये बिना गैर हाजिर रहने का परिणाम - 
  
   जहा पक्षकार को न्यायालय द्वारा स्वयं उपस्थित रहने का  आदेश दिया गया हैं और वह स्वयं उपसंजात नही होता हैं तथा उपसंजात नही होने बाबत प्रयाप्त हेतुक न्यायालय के सामने समाधानप्रद रूप से दर्शित नही करता हैं वहां वह पूर्वगामी नियमो के उन सभी उपबंधों के अधीन होगा जो ऐसे वादियो और प्रतिवादियो को जो उपसंजात नही होते, यथा स्थति लागू होंगे |


नियम 13 - प्रतिवादी के विरुद्ध एकपक्षीय डिक्री को अपास्त करना -
   इस नियम का पूर्ण विवेचन यहा क्लीक कर देखे |*

नियम 14 - कोई भी डिक्री विरोधी पक्षकार को सुचना के बिना अपास्त नही की जाएगी - 
   
   नियम 13 के अधीन दिए गये आवेदन पर कोई भी डिक्री विरोधी पक्षकार को सुचना दिए बिना अपास्त नही की जाएगी |

           आदेश 9 का न्यायिक विचारण में महत्वपूर्ण उपबंध हैं | यह पर सभी नियमो का मुख्य सारांश दिया गया हैं | यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक हैं की आदेश 9 के नियम 2,3,5 के अंतर्गत ख़ारिज किये गये पर नये वाद संस्थित किये जा सकते हैं यदि परिसीमा विधि से बाधित ना हो, परन्तु नया वाद संस्थित नही किया जा सकेगा यदि नियम 8 के अंतर्गत ख़ारिज किया गया हैं |

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Sec. 11 C.P.C. Res-Judicataधारा 11सी.पी.सी.- पूर्व न्याय




 न्याय प्रशासन मे वाद की रचना करना महत्वपूर्ण हैं। इसमे वाद की बहुलता (multiplicity of suit) को रोकना एक आवश्यक तत्व हैं। इसे रोकने के लिए संहिता मे विविध प्रावधान किए गए हैं। जेसे -
1
विचाराधीन न्याय (res - subjudice ) धारा 10 cpc ,
2  
पूर्व न्याय (res - judicata ) धारा  11cpc ,
3
अपर वाद का वर्जन (bar to furthersuit ) धारा12 cpc , आदि का प्रावधान किया गया हैं। सहिंता आदेश 2 मे वाद की रचना की व्यवस्था की गई हैं। उपरोक्त धाराओ में न्यायिक प्रक्रिया में पूर्व न्याय का सिद्धांत अति महत्वपूर्ण होने से सहिंता में धारा11में इसका समावेश किया गया हैं |यह प्रावधान अति महत्वपूर्ण है जिसका विस्तार से विवेचन किया जा रहा है।

    धारा 11 सी.पी.सी. - पूर्व न्याय 

कोई भी न्यायालय किसी ऐसे वाद या विवाद्यक का विचारण नही करेगा जिसमे प्रत्यक्षतः या सारतः ( directly or substantially ) विवाद्ध-विषय उसी हक़ के अधीन मुकदमा करने वाले उन्ही पक्षकारो के बिच के या ऐसे पक्षकारो के बिच के, जिनसे व्युत्पन्न अधिकार के अधीन वे या उनसे कोई वाद करते हैं, किसी पूर्ववती वाद में भी ऐसे न्यायालय में प्रत्यक्षतः  और सारतः विवाद रहा हैं, जो ऐसे पश्चात्वर्ती वाद का या उस वाद का जिसमे ऐसा विवाध्यक वाद में उठाया गया हैं, विचारण करने के लिए सक्षम था और ऐसे न्यायालय द्वारा सुना जा चूका हैं और अंतिम रूप से निर्णित किया जा चूका हैं ।

     उपरोक्त धारा के बारे  में सीधे अर्थो में यह कहा जा सकता हैं की कोई भी न्यायालय किसी ऐसे वाद अथवा वाद बिंदु का विचारण नही करेगा जिसमे वाद पद में वह विषय उन्ही पक्षकारो के मध्य अथवा उन पक्षकारो के मध्य जिनके अधीन वे अथवा कोई उसी हक के अंतर्गत उसी विषय बाबत दावा प्रस्तुत करता हैं तब ऐसे पश्चातवर्ती वाद में जो विवाद बिंदु उठाया गया हैं और न्यायालय विचारणमें सक्षम हैं उस विवाद बिंदु बाबत पूर्व वाद में प्रत्यक्ष व सरवान बिंदु बाबत सुना जा चूका हो तथा अंतिम रूप से न्यायालय द्वारा निर्णित किया जा चूका हो तो ऐसे पश्चातवर्ती वादों का विचारण धारा 11 पूर्व न्याय के सिद्धांत के अनुसार विचारण से प्रवरित करता हैं ।

इस सिद्धांत का मुख्य उद्येश्य वादों की बहुलता को रोकना हैं ।    

सीधे अर्थो में हम यह कह सकते हैं कि उन्ही पक्षकारो के बिच किसी विवाद विषय-वस्तु का कोई निष्पादन योग्य निर्णय हो जाने के बाद उन्ही पक्षकारो के बिच उसी विवाद बाबत नये वाद के विचारण को रोकना हैं |   

     इस धारा में इसकी व्याख्या करने के लिए 8 स्पष्टीकरण दिए गये हैं उन तमाम स्पष्टीकरण का उल्लेख न करते हुए हम इस धारा की मंशा को विभिन्न न्यायिक द्रष्टान्तो से विवेचन करते हैं -

  1) एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया की किसी दस्तावेज     की प्रकृति को अपीलीय न्यायालय लंबित रहने से उसे अंतिम नही माना  गया -       अभिनिर्धारित धारा 11 के प्रावधान आकर्षित नही होंते हैं ।

      1998(2) DNJ S.C. 353

  2) स्पष्टीकरण V||| सिमित क्षेत्राधिकार - पहले वाद में उन्ही पक्षकारो के बिच निर्णय - अगले वाद में बंधनकारी होगा, अगर पश्चावर्ती वाद में उठए गये मुद्दे      स्पष्तः एवं सारतः वही हो - पूर्व न्याय का सिद्धांत लागु होगा ।

          2000(1)DNJ(Raj.) 245

  3) यदि पूर्व वाद अनुपस्थिति में ख़ारिज हुआ हो तथा मेरिट पर निर्णित नही हुआ      एवं वाद हेतुक भी भिन्न रहा हो - पूर्व न्याय का सिद्धांत लागु नही होता हैं ।

        2002 DNJ (Raj.) 910

  4) किसी मामले में सिविल न्यायालय में वसीयत को धारा 68 साक्ष्य अधिनियम के     अनुसार प्रयाप्त रूप से सिद्ध किया गया | राजस्व न्यायालय में पुनः सिद्ध करने     की आवश्यकता नही है पूर्व न्याय का सिद्धांत के अनुसार वसीयत सिद्ध हुयी मानी     जाएगी।

      2000(2) DNJ (Raj.) 503

  5) पूर्व वाद जो करार दिनांक 20/12/1976 की विनिर्दिष्ट पालना बाबत पेश किया       जो साक्ष्य के अभाव में ख़ारिज हुआ पश्चातवर्ती वाद करार दिनांक 14/9/1987 . के     आधर पर पेश हुआ, पूर्व न्याय के सिद्धांत के अनुसार प्राथना-पत्र न्यायालय द्वारा     ख़ारिज किया गया | अभिनिर्धारित - दोनों वादों में वाद हेतुक व पक्षकार तथा       करार भिन्न भिन्न हैं जिससे आदेश में अधिकारिता की त्रुटी या अवेधता नही मानी गयी।

      2014(4) DNJ (Raj.)1446   

  6) किसी वाद में न्यायालय द्वारा प्रत्यक्षतः या सारतः किसी विवाद्द्यक का अंतिम      निर्णय नही होने पर धरा 11 के प्रावधान आकर्षित नही होंगे।

       AIR 1990 (Bom.) 134

  7) किसी रिट याचिका को बिना अधिकार सुरक्षित रखे वापस लेने के उपरांत उसी      आधार पर प्रस्तुत रिट याचिका धारा 11 के अनुसार वर्जित होंगी।

     AIR 1990 (Guj.) 20

      उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट हैं की न्यायालय वाद की कार्यवाहियों में यह धारा  अत्यंत उपयोगी हैं | हम आगे भी महत्वपूर्ण उपबंधो से क़ानूनी नजीरो सहित अवगत कराते रहेंगे | आप निरंतर ब्लॉग से जुड़े रहे |

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