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Order 22 Rule 4 CPC Procedure in the case of death of one of several defendants of sole defendant.

Order 22 Rule 4 CPC Procedure in the case of death of one of several defendants of sole defendant.  आदेश 22 नियम 4 सीपीसी- कई प्रतिवादियो मे...

आदेश 40 सी. पी. सी.--रिसीवरों की नियुक्ति।
 ORDER 40 CPC--RECEIVER


वाद के लम्बित रहने के दौरान वादग्रस्त सम्पति की सुरक्षा रखना आवश्यक है।सम्पति की सुरक्षा के अभाव में न्याय निष्फल होने की पूर्ण सम्भावना होती है।न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि वादग्रस्त सम्पति की सुरक्षा किया जाना आवश्यक है तो वह ऐसी सम्पति की सुरक्षा के लिये रिसीवर की नियुक्ति का आदेश दे सकता है।इस प्रकार रिसीवर वह व्यक्ति होता है जो वादग्रस्त सम्पति की सुरक्षा के लिये नियुक्त किया जाता है। वह व्यक्ति न्यायालय का पदाधिकारी होता है तथा उसे दिया गया कब्ज़ा न्यायालय का कब्ज़ा माना जाता है।ऐसा आदेश न्यायालय के विवेकाधीन होता है।

   रिसीवर की नियुक्ति सम्बन्धी उपबन्ध संहिता के आदेश 40 में उपबंधित किये गये है। जो इस प्रकार है--
आदेश 40 नियम 1 सी. पी. सी.--(1) जहा न्यायालय को यह न्यायसंगत और सुविधा पूर्ण प्रतीत होता है वहा न्यायालय आदेश द्वारा --
(क) किसी सम्पति का रिसीवर चाहे डिक्री के पूर्व या पश्चात नियुक्त कर सकेगा:
(ख) किसी सम्पति पर से किसी व्यक्ति का कब्ज़ा या अभिरक्षा हटा सकेगा:
(ग) उसे रिसीवर के कब्जे अभिरक्षा या प्रबन्ध के सपुर्द कर सकेगा तथा
(घ) वादों के लाने और वादों में प्रतिरक्षा करने के बारे में सम्पति के आपन,प्रबन्ध, संरक्षण,परिरक्षण और सुधार उसके भाटको और लाभो के संग्रह ऐसे लाभो और भाटको के उपयोजन और व्यन तथा दस्तावेजो के निष्पादन के लिये सभी ऐसी शक्तियां जो स्वयं स्वामी की है,या उन शक्तियो में से ऐसी शक्ति जो न्यायालय ठीक समझे, रिसीवर को प्रदत्त कर सकेगा।
(2) इस नियम की किसी बात से न्यायालय को यह प्रधिकार नही होगा कि वह किसी ऐसे व्यक्ति का सम्पति पर से कब्ज़ा या अभिरक्षा हटा दे जिसे हटाने का वर्तमान अधिकार वाद के किसी पक्षकार को नही है।
2. पारिश्रमिक--न्यायालय रिसीवर की सेवाओं के लिये पारिश्रमिक के रूप में दी जाने वाली राशी को साधारण या विशेष आदेश द्वारा नियत कर सकेगा।
  नियम 3 रिसीवर के कर्तव्य के सम्बन्ध में है।
  नियम4 रिसीवर के कर्तव्य को प्रवर्तित कराने बाबत है।
  नियम 5 कलेक्टर कब रिसीवर नियुक्त किया जा सकेगा-- जहा सम्पति सरकार को राजस्व देने वाली भूमि है या ऐसी भूमि है जिसके राजस्व का समनुदेशन या मोचन कर दिया गया है और न्यायालय का यह मत है कि सम्बन्धित व्यक्तियो के हितों की अभिवर्दि कलेक्टर के प्रबन्ध द्वारा होगी वही न्यायालय कलक्टर की सहमति से उसे ऐसी सम्पति का रिसीवर नियुक्त कर सकेगा।

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     यहा CLICK कर व्यादेश तथा रिसीवर की नियुक्ति का उपबंध--Provision for injunction and appointment of receiver. Section 212 RT Act.के बारे में अध्यन करे।
न्यायिक निर्णय--
1. Advocate receiver--Collection of toll for use of National Highway Appointment of receiver to supervise such task will not be proper.Rather appointment of advocate receiver to supervise such work will involve impracticalities.
AIR 2001 SC 3471
2. Application for appointment of receiver with preliminary decree and for delivery of possession-- Held subsequent suit was not barred by res judicata.
AIR 1988 Ori. 246
3. Appointment of receiver--Receivership cannot be imposed by the court in case the person so appointed does not want to continue as receiver to be relived accepted and the trial Court directed to suggest experienced advocate to be appointed as receiver on payment of remuneration.
AIR 1994 SC 478
4. On appointment of receiver,the properties do not get vested in the receiver or the court free for all encumbrances--on such appointment, the right and obligations of third party,will not be affected in any manner whatsoever,and rights can't be interfere by the court or the receiver on appointment of the receiver.
AIR 1997 SC 173

5. Appointment of court receiver -Two receiver in same suit for same property-To resolve the conflict , court directed receivers to make all relevant persons parties to suit- Court then to pass appropriate orders.  1998(1)  DNJ (s.c.) 146


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Disposal Of The Suit At The First Hearing
Order 15 CPC.
प्रथम सुनवाई में वाद का निपटारा-
आदेश 15 सी. पी. सी.

 सिविल वादों की सुनवाई बाबत यह कहा जाता है कि कार्यवाही बहुत लम्बी होती है। ऐसी धारणा आम है कि कभी कभी न्याय दूसरी पीढ़ी को ही प्राप्त होगा। परन्तु यह उस प्रकरण में होता है जब वाद की विषय वस्तु में कोई गम्भीर व क़ानूनी प्रश्न अन्तर्विष्ट हो।इसी कारण सहिंता में समय समय पर संशोधन किये गये है। हर वाद में ऐसा नहीं होता है। किसी वाद का निपटारा उसकी प्रथम सुनवाई पर ही हो जाता है। इस सम्बन्ध में संहिता के आदेश 15 में उपबन्ध किये गये है--

आदेश 15 नियम 1 सी. पी. सी.-

जहा वाद की प्रथम सुनवाई में यह प्रतीत होता है कि विधि के या तथ्य के किसी प्रश्न पर पक्षकारो में विवाद नहीं है वहा न्यायालय तुरन्त ही निर्णय सुना सकेगा।
2. (1) जहा कई प्रतिवादियों में से किसी एक का विवाद नही है--जहाँ एक से अधिक प्रतिवादी है और प्रतिवादियों में से किसी एक विधि के या तथ्य के किसी प्रश्न पर वादी से विवाद नही है वहा न्यायालय ऐसे प्रतिवादी के पक्ष में या उसके विरुद्ध चलेगा।
(2) जब कभी इस नियम के अधीन निर्णय सुनाया जाता है तब ऐसे निर्णय के अनुसार डिक्री तैयार की जायेगी और डिक्री में वही दिनांक दी जायेगी जिस दिनांक को निर्णय सुनाया गया था।
3. जब पक्षकारों में विवाद है--
(1) जहा पक्षकारों में विधि के या तथ्य के प्रश्न पर विवाद है और न्यायालय ने इसके पूर्व उपबंधित रूप से विवाद्यको की विरचना कर ली है वहा, यदि न्यायालय को यह समाधान हो जाता है कि विवाद्यको में से ऐसे विवाद्यको के लिए जो वाद के विनिश्चय के लिये पर्याप्त है,जो तर्क या साक्ष्य पक्षकार तुरन्त ही दे सकते है उसके सिवाय कोई अतिरिक्त तर्क या साक्ष्य अपेक्षित नहीं है और वाद में तुरन्त ही आगे की कार्यवाही करने से कोई अन्याय नहीं होगा तो, न्यायालय ऐसे विवाद्यको के अवधारण के लिये अग्रसर हो सकेगा और यदि उनसे सम्बन्धित निष्कृष विनिश्चय के लिये पर्याप्त है तो वह तदनुसार निर्णय सुना सकेगा चाहे समन केवल विवाद्यको के स्थरीकरण के लिए निकाला गया हो या वाद के अंतिम निपटारे के लिए:
    परन्तु जहा समन केवल विवाद्यको के स्थिरीकरण के लिये ही निकाला गया है वहां यह तब किया जायेगा जब पक्षकार या उनके अधिवक्ता उपस्थित हो और उनमें से कोई आक्षेप नहीं करता हो।
(2) जहा निष्कर्ष विनिश्चय के लिए पर्याप्त नही है वहा न्यायालय वाद की आगे की सुनवाई नियत करेगा और ऐसे अतिरिक्त साक्ष्य को पेश करने के लिये या ऐसे तर्क के लिए दिन नियत करेगा जो मामले में अपेक्षित हो।
4.  साक्ष्य पेश करने में असफलता--जहा समन वाद के अन्तिम निपटारे के लिये निकाला गया है और दोनों में से कोई भी पक्षकार वह साक्ष्य पेश करने में पर्याप्त हेतुक के बिना असफल रहता है जिस पर वह निर्भर करता है वहां न्यायालय तुरन्त ही निर्णय सुना सकेगा या यदि वह ठीक समझता है तो विवाद्यको की विरचना और अभिलेखन के पश्चात वाद को ऐसे साक्ष्य पेश किये जाने के लिए स्थगित कर सकेगा जो ऐसे विवाद्यको पर उसके विनिश्चय के लिये आवश्यक है।
 इस प्रकार प्रथम सुनवाई पर ही वाद का निपटारा करने सम्बन्धी उपबन्ध आदेश 15 में दिए गये है।
न्यायिक प्रक्रिया में मामलो के शीघ्र निस्तारण हेतु अत्यन्त ही महत्वपूर्ण उपबन्ध है।
1. जहा प्रतिवादी ने वादग्रस्त सम्पति के भाग को सयुक्त परिवार की सम्पति होने की स्वीकृति दी तथा बाद में जबाब दावे में संशोधन के जरिये स्वीकृति वापिस ले ली।उक्त संशोधन को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
AIR 1998 SC 618
1998(1) RLW 70
2. संविदा की विर्निदिष्ट पालना के मामले में समझौता डिक्री--पक्षकारो के मध्य समझौते से संतुष्टि की पक्षकारो के मध्य कोई विवाद नहीं। न्यायालय सामान्य
प्रक्रिया के बिना डिक्री प्रदान कर सकता है तथा ऐसी स्थिति में विवाद्यक बनाये जाने आवश्यक नहीं है।
AIR 1994 A. P. 301
3. आदेश 15 नियम 5 के उपबन्ध आज्ञात्मक नहीं है तथा विवेकाधीन है।
AIR 1986 All. 90
4. यदि किरायेदार जानबूझ कर मामले को लम्बा करने की नियत से किराया जमा नहीं करवाता है तो नियम के अन्तर्गत उसके प्रतिरक्षा के अधिकार को समाप्त किया जाना ही न्यायसंगत है।
AIR 1983 All 396
5. वाद की सुनवाई की तिथि वाद पदों के निस्तारण के लिये निश्चित की जाती है तो नियम 3 लागू किया जा सकता है।
AIR 1956 Bom. 721

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Judgement on admission-Order 12 Rule 6 CPC.स्वीकृतियों के आधार पर निर्णय--आदेश 12नियम 6 सी. पी. सी.

       वाद के निस्तारण में स्वीकृतियों का अत्यन्त महत्व होता है। स्वीकृत किये गए तथ्यों या दस्तावेजों को साक्ष्य से साबित करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है।न्यायालय स्वीकृति के आधार पर वाद का निर्णय सुनाने के लिये अग्रसर हो सकता है। सहिंता के आदेश 12 में ऐसी स्वीकृतियो के बारे में उपबन्ध किये गये है।
इस आदेश का नियम 6 महत्वपूर्ण उपबन्ध है जो सहिंता में निम्न है--

  आदेश 12 नियम 6 सी. पी. सी.--


 (1) जहाँ अभिवचन में या अन्यथा चाहे मौखिक रूप से या लिखित रूप में तथ्य की स्वीकृतियां की जा चुकी है वहां न्यायालय वाद के किसी प्रक्रम में या तो किसी पक्षकार के आवेदन पर या स्वप्रेरणा से और पक्षकारों के बीच किसी अन्य प्रशन के अवधारण की प्रतीक्षा किये बिना ऐसी स्वीकृतियो को ध्यान में रखते हुए ऐसा आदेश या ऐसा निर्णय कर सकेगा जो वह ठीक समझे।
(2) जब कभी नियम (1) अधीन निर्णय सुनाया जाता है तब निर्णय के अनुसार डिक्री तैयार की जायेगी और डिक्री में वही दिनांक दी जायेगी जिस दिनांक को उक्त निर्णय सुनाया गया था।
 इस नियम के अंतर्गत न्यायालय को स्वीकृतियो के आधार पर वाद के किसी प्रक्रम पर निर्णय पारित किए जाने के सम्बन्ध में व्यापक शक्तियां प्रदान की गयी है।इस नियम का मुख्य उदेश्य पक्षकारो को शीघ्र न्याय प्रदान करना है।
: आदेश 12 नियम 6 बाबत महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय---
1. जहाँ बिना पंजियन बेचान के आधार पर वाद पेश किया गया।निर्णीत--वादी के पक्ष में  डिक्री प्रदान नहीं की जा सकती भले ही प्रतिवादी ने वादपत्र और बेचान को स्वीकार कर लिया हो।
1994 AIR NOC 150 AP

2. पक्षकारो के मध्य तीन वर्ष की लीज हुई।उक्त अवधि पश्चात लीज चालू नहीं रह सकती है।बिना पंजियन नवीनीकरण वैध नहीं।जिससे धारा 106 सम्पति अंतरण अधिनियम के अन्तर्गत एक माह की सुचना लीज समाप्ति की न्यायसंगत मानी गयी।
AIR 1999 Del. 377

3. प्रतिवादी ने जबाब दावा में वादपत्र को स्वीकार किया।जबाब दावे में स्वीकृति के आधार पर वाद डिक्री किया।इस डिक्री में अधिकार पहलीबार प्राप्त हुए।भारतीय पंजियन अधिनियम के अन्तर्गत डिक्री का पंजीयन आवश्यक है।
AIR 1996 SC 196


4.यह उपबन्ध आज्ञात्मक नहीं है।
2015 (1)DNJ (SC) 238

5. स्वीकारोक्ति के आधार पर निर्णय सुनाने हेतु आवेदन--विचारण न्यायालय ने आवेदन ख़ारिज किया-- प्रतिवादीगण याचीगण ने आवेदन पेश कर वादी गण के गवाह परीक्षित करने से रोकने की प्रार्थना की--आवेदन ख़ारिज किया-- नियम 6 के अन्तर्गत वादी को मामला चलाने का वर्जन नहीं। निर्णीत--आदेश में अवैधता या प्रतिकूलता नहीं है।
2014 (3) DNJ (Raj)1058

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 Order for injunction may be discharged,varied or set aside--Order 39 Rule 4 CPC.
 व्यादेश के आदेश को प्रभावोन्मुक्त,उसमे फेरफार या उसे अपास्त किया जाना--

         सिविल प्रक्रिया सहिंता में आदेश 39 बहूत ही महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उक्त  आदेश अस्थायी व्यादेश एवं वाद कालीन आदेश बाबत प्रक्रिया सम्बंधित हैं | जब पक्षकार न्यायलय में वाद प्रस्तुत करता हैं तब विरोधी पक्षकार के किसी अपकृत्य को तत्काल रोकने की आवयश्कता होती हैं | वाद कि लम्बी प्रक्रिया होने से तत्काल अनुतोष पक्षकार को वाद के साथ इस आदेश के अंतर्गत प्राथना पत्र प्रस्तुत करने पर न्यायलय तत्काल विरोधी पक्ष के अपकृत्य को रोकने का आदेश प्रदान कर सकते हैं। न्यायलय की सामान्य प्रक्रिया में यथास्थिति(status quo)  बनाये रखने का आदेश प्रदान किया जाता हैं ।  यदि कोई पक्षकारवाद ग्रस्त ऐसी सम्पति को क्षति पहुचाने का  कार्य करता हैं या ऐसे कार्य करने की धमकी देता हैं तो निश्चित ही यह कृत्य दुसरे पक्षकार के लिए अपूर्णीय क्षति का कृत्य करता हैं एसी अवस्था में न्यायलय का प्रथम कर्तव्य हैं की वाद के लंबित रहने के दौरान या उसके अंतिम निर्णय तक वादग्रस्त सम्पति की  सुरक्षा करने के लिए वाद के रोज की  स्थति को बनाये रखने का आदेश व्यादेश(njunction )विरोधी पक्ष के विरुद्ध जारी करे।


 संहिता में न्यायालय द्वारा इस प्रकार दिया गया आदेश को किसी पक्षकार द्वारा आवेदन देने पर न्यायालय किसी प्रक्रम पर उस आदेश को प्रभाव मुक्त या पारित आदेश में फेर फार या पारित आदेश को अपास्त करने सम्बंधी उपबन्ध संहिता के आदेश 39 नियम 4 में किये गए है।

आदेश 39 के अन्य उपबन्ध के अध्ययन के लिए यहां Click कर पढ़े।

नियम 4 संहिता में इस प्रकार से उपबंधित किया गया है---
4. व्यादेश के आदेश को प्रभावमुक्त,उसमे फेर फार या अपास्त किया जा सकेगा-
व्यादेश के किसी भी आदेश को उस आदेश से असंतुष्ट किसी पक्षकार द्वारा न्यायालय से किये गये आवेदन पर उस न्यायालय द्वारा प्रभाव मुक्त, उसमे फेर फार या उसे अपास्त किया जा सकेगा;

      परन्तु यदि अस्थाई व्यादेश के लिए किसी आवेदन में या ऐसे आवेदन का समर्थन करने वाले किसी शपथ पत्र में किसी  पक्षकार ने किसी तात्विक विशिष्ट के सम्बध में जानते हुए मिथ्या या भ्रामक कथन किया है और विरोधी पक्षकार को सुचना दिए बिना व्यादेश दिया गया था तो न्यायालय व्यादेश को उस दशा में अपास्त कर देगा जिसमे वह अभिलिखित किये जाने वाले कारणों से यह समझता है कि न्याय के हित में ऐसा करना आवश्यक नही है:
        परन्तु यह और कि जहां किसी पक्षकार को सुनवाई का अवसर दिये जाने के पश्चात व्यादेश के लिये आदेश पारित किया गया है वहा ऐसे आदेश को उस पक्षकार के आवेदन पर तब तक डिस्चार्ज फेर फार या अपास्त किया जाना आवश्यक न हो गया हो या जब तक न्यायालय का यह समाधान नही हो जाता है कि आदेश से उस पक्षकार को कठिनाई हुई हो।

 इस नियम के अध्ययन से स्पष्ट है कि एकपक्षीय पारित आदेश या सुनवाई के पश्चात पारित आदेश को न्यायालय असन्तुष्ट पक्षकार के आवेदन पर न्यायालय आदेश 39 के अधीन दिए गए व्यादेश के आदेश को उपान्तरित या अपास्त कर सकता है।

इस सम्बन्ध में निम्न न्यायिक महत्वपूर्ण निर्णय इस उपबंध को समझने के लिए दिए जा रहे हैं -
1. एक पक्षीय व्यादेश का आदेश-
इस आदेश को वादी को सुनवाई का अवसर दिए बिना अपास्त किया--निर्णीत,आदेश विधि सम्मत नहीं-- जब व्यादेश का आदेश दिया जाता है तो उसे पक्षकारो की सुनवाई किये बिना अपास्त नही किया जा सकता है।
 AIR 1988 HP 31
2. स्थगन आदेश को उपान्तरित करने हेतु आवेदन ख़ारिज किया--
बालिकाओं के शैक्षिणक संस्थान स्थापित करने हेतु भूमि दान की--
दान विलेख को निरस्त करने हेतु वाद--कथन कि वह अन्य प्रयोजन हेतु निर्माण नहीं करेगा--आदेश उपान्तरित किया और न्यायालय की अनुमति बिना अपिलांट सम्पति को तृतीय पक्ष को किसी भी प्रकार से अंतरित नहीं करेगा।
2012 (2) DNJ (Raj.)789

3. घोषणा व व्यादेश का वाद--विपक्षी पक्षकार को नोटिस जारी किये गये। अधिवक्ता द्वारा पैरवी की हिदायत नहीं होना जाहिर किया--इन परिस्थितियों में प्राथी व्यादेश पाने का पात्र है-- व्यादेश अपास्त करने का आवेदन निरस्त किया गया।
  AIR 1992 Raj. 165
4.एकपक्षीय व्यादेश आदेश का अपास्त किया जाना-- जहां एकपक्षीय व्यादेश के आदेश को अपास्त करने का आवेदन कि व्यादेश आदेश जारी होने के विशिष्ट( निर्धारित) समय में निपटारा नहीं--एकपक्षीय आदेश स्वतः ही अपास्त।
AIR 1991 Cal. 272
5. अंतरिम व्यादेश के आदेश को अपास्त करने का आवेदन निरस्त किया--प्रार्थी का तर्क कि उसने आदेश दिनांक 2.4.2010 के पारित करने के पूर्व ही सम्पति विक्रय की तथा विचारण न्यायालय के आदेश की पालना नही की जा सकती--प्रार्थी पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं--निर्णीत, आदेश में प्रतिकूलता अथवा अवैधता नहीं है।
2011(1)DNJ( Raj) 93

6. व्यादेश के आदेश का अपास्त किया जाना-- उच्च न्यायालय द्वारा मुख्य विवाद्यक पर वाद की पोषणीयता व पारिवारिक सेटलमेंट पर फाइंडिंग देना विधिसम्मत नहीं।
आदेश बनाये नहीं रखा जा सकता-- आदेश अपास्त किया गया व मामला पुनः निर्णीत करने हेतु लौटाया गया।
2014 (4) DNJ (SC) 1078

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 Order 39 Rule 2A. CPC
Consequence of disobedience or breach of injunction--
आदेश 39 नियम 2 (क) सी. पी. सी.
व्यादेश की अवज्ञा या भंग का परिणाम

     संहिता में आदेश 39 नियम 1-2 में पारित आदेश की कोई भी पक्षकार अवज्ञा करता है तो उस बाबत उसे न्यायालय के अवमानना  के लिए दण्डित करने व उसे सिविल कारावास  में निरुद्ध करने तथा उसकी सम्पति कुर्क करने या बेचने सम्बन्धी आदेश देने की शक्तियां न्यायालय को नियम 2 क के अंतर्गत प्रदत्त की गई है।आदेश की पालना कराने के लिए सहिंता का यह मत्वपूर्ण उपबन्ध है जो संहिता में निम्न प्रकार से उपबंधित किया गया है-


      आदेश 39 2(क) व्यादेश की अवज्ञा या भंग का परिणाम-


(1) नियम 1 या नियम 2 के अधीन दिए गए किसी व्यादेश या किये गए अन्य आदेश की अवज्ञा की दशा में या जिन निबन्धनों पर आदेश दिया गया था या आदेश किया गया था उनमे से के किसी निबंधन के भंग की दशा में व्यादेश देने वाला या आदेश करने वाला न्यायालय या ऐसा कोई न्यायालय, जिसे वाद या कार्यवाही अंतरित की गयी है,यह आदेश दे सकेगा कि ऐसी अवज्ञा या भंग करने के दोषी व्यक्ति की सम्पति कुर्क की जाए और यह भी आदेश दे सकेगा कि वह व्यक्ति तीन माह से अनधिक अवधि के लिए सिविल कारागार में तब तक निरुद्ध किया जाए जब तक की इस बीच में न्यायालय उसकी निर्मुक्ति के लिए निदेश न दे दे।

(2) इस अधिनियम के अधीन की गई कोई कुर्की एक वर्ष से अधिक समय के लिये प्रवर्त नहीं रहेगी,जिसके ख़त्म होने पर यदि अवज्ञा या भंग जारी रहे तो कुर्क की गयी सम्पति का विक्रय किया जा सकेगा और न्यायालय आगमो में से ऐसा प्रतिकर जो वह ठीक समझे उस पक्षकार को दिला सकेगा जिसकी क्षति हुई हो,और शेष रहे तो उसे हक़दार पक्षकार को देगा।

    संहिता के आदेश 39 नियम 1 से 10 तक के तमाम उपबन्धों के अध्ययन के लिए यहां Click कर पढ़े।
संहिता के आदेश 39 नियम 1-2 के अधीन दिया गया आदेश पक्षकारो पर बाध्यकारी होता है तथा पक्षकारो को उस व्यादेश आदेश का पालन करना होता है कोई भी उस आदेश की अवज्ञा या भंग करता है तो उसके परिणाम उस पक्षकार को भुगतने होंगे।उन्ही की व्यवस्था इस नियम के अंतर्गत की गयी है।चूँकि व्यादेश का आदेश  न्यायालय द्वारा दिया जाता है तथा कोई भी पक्षकार उस आदेश की अवज्ञा या भंग करता है तो सामान्य भाषा में इसे न्यायालय की अवमानना (Contempt of Court) ही माना व कहा जाता है।
इस आदेश की अवज्ञा करने पर  न्यायालय निम्न आदेश दे सकता है-

1. आदेश की अवज्ञा करने वाले पक्षकार को सिविल कारावास में निरुद्ध करने का आदेश दे सकेगा परन्तु यह अवधि तीन माह से अधिक की नहीं होगी।
2.  उस पक्षकार की सम्पति कुर्क करने का आदेश दे सकता है।
3.  कुर्क की गयी सम्पति का आदेश अधिकतम एक वर्ष की समयावधि तक ही प्रवर्त होगा।
4. उक्त एक वर्ष की अवधि के पश्चात भी अवज्ञा या भंग जारी रहे तो कुर्क की गयी सम्पति का विक्रय कर दिया जायेगा व क्षतिग्रस्त पक्षकार को प्रतिकर दिलवा कर क्षति पूर्ति की जायेगी।
5. न्यायालय की अवमानना के लिए उसे दण्डित किया जा सकेगा।

 एकपक्षीय व्यादेश का आदेश नियम 3 के अंतर्गत दिए जाने सम्बन्धी उपबंध का विस्तृत विवेचन के लिए यहां Click कर पढ़े।

व्यादेश देने के पूर्व न्यायालय इस सम्बन्ध में जो सहिंता में आवश्यक शर्ते दी गयी हैं उसके अध्ययन के लिए यहा CLICK पढ़े।


  इस प्रकार सहिंता का आदेश 39 नियम 2 (क)एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण उपबंध हैं |

आदेश  39 नियम 2 (क)के  सम्बन्ध में निम्न न्यायिक महत्वपूर्ण निर्णय इस उपबंध को समझने के लिए दिए जा रहे हैं -
1. आदेश 39 नियम 2 (क) के अंतर्गत पारित निरुद्ध के आदेश के विरुद्ध अपील-- इस आदेश के विरुद्ध अपील पोषणीय है।
 AIR 1994 Bom. 38

2. जहाँ अवमानना की कार्यवाही प्रस्तुत की जाती है और पारित आदेश संदिग्ध हो।वहा व्यादेश भंग का प्रशन नहीं है। कार्यवाही शून्य होने से निरस्त योग्य है।
 AIR 2000 Bom.78

3.विचारण न्यायालय ने अवमान कर्तागण प्राथीगण को एक माह के अंदर सम्पति  को प्रास्थिति को बहाल करने का निर्देश--वैधता--
 सम्पति की कुर्की का आदेश पारित नहीं किया--निर्णीत, आदेश उपान्तरित किया तथा प्रार्थीगण की सम्पति एक वर्ष की अवधि के लिए कुर्की के अधीन रहेगी जिसके दौरान निर्देशों की पालना करने हेतु  प्रार्थीगण स्वतन्त्र है।
2009 (2) DNJ (Raj.) 807

4. व्यादेश का आदेश एकपक्षीय पारित हुआ तब क्या प्रभाव और परिणाम होगा ? अभिनिर्धारित, पक्षकार के अभिभाषक पर सुचना अथवा नोटिस का तमिल होना, सिविल कार्यवाही में प्रयाप्त मन जा सकता हैं परन्तु दाण्डिक मामले के दायित्व में, ऐसी कोई उपधरणा नही हो सकेगी की विपक्षी पक्षकार को सुचना की तमिल हुई अथवा उसे ज्ञान रहा हो |
1997(2)DNJ Raj.652

5. अपिलान्ट अस्थाई व्यादेश के प्राथना पत्र में पक्षकार नही था नहीं उसके विरुद्ध कोई व्यादेश जारी हुआ, वाद भी कार्यवाही के पूर्व निरस्त हो चूका था | अपिलांट के विरुद्ध अवमानना का आदेश निरस्त किया गया |
1994(2)DNJ (Raj.)366

6. आदेश की अवमानना के मामले में कोई भी आदेश पारित करने के पूर्व विपक्षी पक्षकार को सुनना आवश्यक हैं |
AIR 2002 J&K 134

7. कोई भी आदेश नियम 2(क) के अंतर्गत पारित किया जाता हैं और उस आदेश की कोई अपील या रिविजन नही किया जाता हैं और उक्त आदेश को डिक्री की अपील में चुनोती दी जाता हैं | अभिनिर्धारित - उक्त आदेश की अलग से अपील पोषणीय हैं तथा उक्त आदेश के विरुद्ध मुख्य डिक्री की अपील में चुनोती नही दी जा सकती हैं |
AIR 1991 Ker. 44 



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